त्योहार का परिचय:
सम-श्रावणी श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला एक विशेष वैदिक पर्व है, जो विशेषकर ब्राह्मण समुदाय द्वारा श्रद्धा से मनाया जाता है। यह दिन आमतौर पर जुलाई या अगस्त महीने में आता है और इसे ऋषि पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन यज्ञोपवीत (जनेऊ) को बदलकर, व्यक्ति अपने वैदिक जीवन और आत्मिक अनुशासन का नवीकरण करता है।
सम-श्रावणी के पीछे की कथा:
प्राचीन काल में जब कोई बालक गुरुकुल में वेद अध्ययन के लिए प्रवेश करता था, तो उपनयन संस्कार के द्वारा उसे जनेऊ धारण करवाया जाता था। हर वर्ष श्रावण पूर्णिमा को जनेऊ को बदलकर आत्मशुद्धि और ज्ञान मार्ग पर फिर से चलने का संकल्प लिया जाता था।
इस दिन ब्राह्मण कामोकार्षित जप, ऋषि तर्पण, और गायत्री मंत्र जप के माध्यम से मन, वाणी और कर्म की शुद्धि करते हैं और जीवन में फिर से वैदिक मूल्य अपनाने की शुरुआत करते हैं।
यह पर्व क्यों मनाया जाता है:
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वैदिक अध्ययन को पुनः प्रारंभ करने के लिए
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आत्मशुद्धि और नवचेतना के लिए
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ऋषियों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट करने के लिए
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धार्मिक जीवन और अनुशासन को पुनः अपनाने हेतु
यह पर्व अध्यात्म और संस्कृति से जुड़ाव को और प्रगाढ़ करता है।
सम-श्रावणी की मुख्य परंपराएं:
🔸 यज्ञोपवीत परिवर्तन:
ब्रह्मचारी और ब्राह्मण पुरुष जनेऊ बदलकर नया संकल्प लेते हैं।
🔸 कामोकार्षित जाप:
पिछले वर्ष की त्रुटियों के लिए प्रायश्चित रूप में जाप किया जाता है।
🔸 ऋषि तर्पण:
प्राचीन ऋषियों को जल और मंत्रों द्वारा श्रद्धांजलि दी जाती है।
🔸 गायत्री मंत्र और वेद पाठ:
गायत्री मंत्र का 108 या 1008 बार जप और वेदों का पाठ किया जाता है।
🔸 यज्ञ और सामूहिक पूजा:
घर, मंदिर या वेदशालाओं में यज्ञ और हवन आयोजित किए जाते हैं।
त्योहार का महत्व:
आध्यात्मिक पुनर्जन्म:
भूतकाल की गलतियों को पीछे छोड़कर नयी शुरुआत करने का अवसर।
वैदिक परंपरा की रक्षा:
वेदों के ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने की परंपरा।
अनुशासन और संयम:
आत्मसंयम, संयमित जीवन और धार्मिकता की प्रेरणा।
ऋषियों का स्मरण:
संस्कृति और ज्ञान को बचाने वाले ऋषियों के प्रति सम्मान।
सांस्कृतिक पहचान:
ब्राह्मण समाज की आध्यात्मिक जड़ों से जुड़ाव को सुदृढ़ करता है।
सम-श्रावणी केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और वैदिक जीवन की ओर लौटने की आध्यात्मिक यात्रा है।