व्रत विधि:
वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी से शुरू होकर पूर्णिमा के दिन पूर्ण किया जाता है। कई महिलाएँ इस व्रत की शुरुआत ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से भी करती हैं। बड़ (वट) वृक्ष के नीचे बैठकर महिला को यह संकल्प करना चाहिए कि वह अपने परिवार की सुख-समृद्धि और अखंड सौभाग्य के लिए यह ब्रह्मा सावित्री व्रत कर रही है और उसे इसका पूर्ण फल प्राप्त हो। व्रत करने वाली महिला को व्रत के दौरान फलाहार करना चाहिए। बड़ के वृक्ष का पूजन अबीर, गुलाल, कुमकुम-चावल और फूलों से करना चाहिए। इसके बाद बड़ को जल अर्पित करना चाहिए।
फिर एक सूती धागे से बड़ के तने को 108 बार लपेटते हुए उसकी परिक्रमा (प्रदक्षिणा) करनी चाहिए। परिक्रमा करते समय यह मंत्र जप करना चाहिए:
"नमो वैवस्वताय"
साथ ही अपने पति की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। बड़ को जल चढ़ाते समय यह प्रार्थना करनी चाहिए:
वट सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा।।
व्रत करने वाली स्त्री को इन दिनों में सती सावित्री की कथा भी सुननी चाहिए।
व्रत पूरा होने के बाद, सौभाग्यवती स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर उन्हें भोजन कराना चाहिए, और फिर स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए।
व्रत कथा:
बहुत वर्षों पहले की बात है, अश्वपति नामक एक राजा था, और उसकी रानी वैशाली थी। राजा-रानी दोनों उन्नत भाव वाले, दयालु और स्नेही थे। वे सब कुछ पाकर भी एक ही कमी महसूस करते थे—उनके घर में कोई संतान नहीं थी।
एक दिन उनके महल में साधु महाराज आए। उन्होंने राजा-रानी की दशा देख कर दुख व्यक्त किया और कहा कि वे सावित्री देवी का व्रत करें, इससे उनका वांझ पाप मिटेगा। राजा-रानी ने चौकन्ना होकर व्रत आरंभ किया। कुछ समय बाद देवी प्रसन्न हुए, परंतु रानी ने कहा, “हम सभी प्रकार से स्वस्थ हैं, पर घर में संतान नहीं—उसके लिए हम दुखी हैं।”
देवी ने उन्हें कहा, “तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं, बल्कि एक पुण्यवती पुत्री ही है, जो भविष्य में तुम्हारा नाम रोशन करेगी।” माता-पिता को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और वह स्थान-स्थान से गायब हो गईं। नौ माह बीतने पर वैशाली रानी ने एक सुंदर पुत्री को जन्म दिया, जिसे देवी सावित्री मानकर उन्हों ने उसी नाम से बुलाना आरंभ किया। समय के साथ वह दिन की अपेक्षा रात को अधिक समय तक बढ़ती रही—सुंदरता और संस्कारो में वर्धमान, जिसे राजा और रानी बड़े प्यार से पाला-पोसा।
समय के साथ सावित्री के विवाह की चिंता होने लगी। राजा-रानी ने चारो ओर से योग्य वर की जाँच करवाई, परंतु कोई उपयुक्त वर नहीं मिला। अन्ततः उन्होंने स्वयं सावित्री को अपना वर चुनने की इजाजत दी। सावित्री ने अपने मन की धुन पर चलकर—वन में आश्रम में रहने वाले धूमत्सेन राजा के सुपुत्र सत्यवान को अपना वर चुना। यह सुनकर राजा-रानी चिंतित भी थे एवं प्रसन्न भी। इसी बीच नारदजी वहां पधारे और राजा-रानी ने उनसे सलाह मांगी। नारदजी ने कहा कि सत्यवान तुम्हारी पुत्री के लिए उत्तम वर हैं, किंतु...
राजा ने आश्चर्य से पूछा: “लेकिन क्या, मुनिराज?”
नारदजी बोले: “सत्यवान की आयु बहुत कम, केवल एक वर्ष ही बचे हैं।” यह सुनकर राजा-रानी अत्यंत निराश व व्यथित हुए, और उन्होंने अपनी पुत्री से कहा कि सत्यवान से विवाह करने का विचार त्याग दो।
अद्वितीय दृढ़ता वाली सावित्री ने कहा: “जो भी मेरा भाग्य हो, वही होगा—इसलिए चिंता छोड़ो। मैंने सत्यवान के साथ विवाह करने का संकल्प ग्रहण किया है, और इसमें लौटूँगी नहीं।” उसकी निश्चल दृढ़ता देखकर राजा-रानी चुप हो गए।
अतः अश्वपति राजा सत्यवान के पिता धूमत्सेन के आश्रम पहुंचे और अपने गौरव से कहा कि “धूमत्सेनराज! मैं अश्वपति हूँ और मेरी पुत्री सावित्री को आपके पुत्र सत्यवान से विवाह दिलाना चाहता हूँ।” धूमत्सेन ने कहा, “आप मेरे कौन से स्थान पर? मेरा राजपाट भी नहीं है, दुश्मन मुझे जंगल में वन-वासी-बसाए गए।” फिर भी अश्वपति ने कहा, “यदि मेरी पुत्री चाहती है, तो आप क्या दाव पर लगा रहे हो?”
धूमत्सेन बोले: “इसमें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, बेटी को दिव्य आनंद हो।” वे दोनों उठ खड़े होकर चले, मार्ग में अँधेरे से बचने के लिए पानी वाले माटले से जब वे टकराए और गिरकर बच गए, तब सत्यवान वहां आया और उसने अपने पिता राजा को उठाया।
उचित मुहूर्त देखकर अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से धूमधाम से कराया। बाहर से तो सभी हर्षित थे, लेकिन भीतर राजा-रानी दुखी थे—क्योंकि कुछ ही दिनों में उनकी पुत्री विधवा हो सकती थी।
विवाह के पश्चात सत्यवान और सावित्री प्रेमपूर्वक रहने लगे। परंतु नारदजी द्वारा सत्यवान की न्यून आयु की सूचना मिलते ही सावित्री देवी आराधना करने लगी।
समय बीतते-बीतते एक वर्ष पूर्ण हुआ और अंतिम दिन आया। सत्यवान सुबह जंगल में लकड़ी काटने निकले और सावित्री उनके साथ गयी। एक सूखते वृक्ष पर कुल्हाड़ी से वह काटने लगी; अचानक पेट में दर्द हुआ और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। सावित्री उसका सिर पर हाथ फेरकर रोने लगी।
इतने में वहाँ एक विशाल पुरुष भैंसे पर बैठकर आया। सावित्री ने पूछा, “आप कौन हैं? और यहाँ क्यों आए हैं?”
आने वाला स्वयं यमराज थे। उन्होंने कहा, “मैं यमराज हूँ, और तुम्हारे पति का आयुष्य पूर्ण हो चुका है। इसलिए मैं उन्हें लेने आया हूँ।”
ऐसा कहकर यमराज ने अपने हाथ में पकड़े पाश से सत्यवान के शरीर से उसकी आत्मा खींच ली। सत्यवान का शरीर निर्जीव हो गया।
सत्यवान की मृत्यु से सावित्री को अत्यधिक आघात पहुँचा। वह रोती-बिलखती यमराज के पीछे चल पड़ी।
यमराज ने पीछे मुड़कर देखा और कहा, “तू मेरे पीछे क्यों आ रही है? माथे पर लिखा हुआ भाग्य कभी झूठा नहीं जाता। तुम्हारे पति की किस्मत में लंबा जीवन नहीं है, इसलिए सब कुछ भूलकर वापस लौट जाओ।”
सावित्री ने कहा, “जहाँ मेरा पति है, वहीं मैं हूँ, इसलिए मैं लौट नहीं सकती। मैंने आपके साथ सात कदम चले हैं, इसलिए हमारे बीच मित्रता स्थापित हो चुकी है। इस नाते मैं आपसे मित्रभाव से प्रार्थना करती हूँ कि मुझे अपने पतिव्रता धर्म का पालन करने दें।”
यमराज ने कहा, “बेटी, मैं तुमसे फिर कहता हूँ कि अपने पति के प्राणों को छोड़कर जो चाहे वरदान माँग लो, पर अब तुम लौट जाओ।”
सावित्री ने कहा, “मेरे ससुर को नेत्रदान दीजिए ताकि वे देख सकें।”
यमराज ने कहा, “तथास्तु! अब लौट जाओ।”
सावित्री ने कहा, “मेरे लिए लौटना असंभव है। जहाँ मेरा पति है, वहीं मैं रहूँगी — यही स्त्रीधर्म है। और, सत्पुरुषों का संग कभी व्यर्थ नहीं जाता, तो क्या आपका संग व्यर्थ जाएगा?”
यमराज ने कहा, “बेटी, तुमने मुझे धर्म का सच्चा मार्ग समझाया। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अपने पति के प्राणों को छोड़कर जो चाहे वर माँग लो, मैं प्रसन्नतापूर्वक दूँगा।”
सावित्री ने कहा, “आपने मेरे ससुर को नेत्रदान दिया, अब उन्हें उनका खोया हुआ राज्य भी वापस दीजिए।”
यमराज ने कहा, “तथास्तु। लेकिन अब मार्ग कठिन है, इसलिए वापस लौट जाओ।”
सावित्री ने कहा, “आप सब प्राणियों को नियम में रखते हैं, इसीलिए आपको यम कहा जाता है। प्रत्येक प्राणी पर दया रखना और शरण में आए व्यक्ति की रक्षा करना धर्म है। अब जब मैं आपकी शरण में हूँ, तो क्या आप मेरी रक्षा नहीं करेंगे?”
यमराज ने कहा, “बेटी, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अपने पति के प्राणों को छोड़कर जो चाहे वर माँग लो।”
सावित्री ने कहा, “मेरे माता-पिता को कोई पुत्र नहीं है। उन्हें सौ पुत्र प्राप्त हों और उनका वंश चलता रहे — ऐसा वरदान दीजिए।”
यमराज ने कहा, “तथास्तु।”
इसके बाद यमराज आगे बढ़ने लगे और सावित्री फिर उनके पीछे चलने लगी।
यमराज ने कहा, “बेटी, अब और क्या बचा है? जो चाहे, माँग लो।”
सावित्री ने कहा, “मुझे स्वयं सौ पुत्र चाहिए।”
यमराज ने कहा, “तथास्तु। अब लौट जाओ और मुझे जाने दो।”
सावित्री ने कहा, “आपने सौ पुत्रों का वरदान दे दिया, लेकिन मेरी तरह की पतिव्रता स्त्री को बिना पति के पुत्र कैसे होंगे, क्या आपने इसका विचार किया? इसलिए आप मेरे पति को मुझे वापस सौंप दीजिए।”
सावित्री की बुद्धिमत्ता और चातुर्य से यमराज अत्यंत प्रसन्न हो गए। अपने दिए हुए वचनों को पूर्ण करने हेतु उन्हें सत्यवान के प्राण सावित्री को लौटाने ही पड़े।
यमराज ने कहा, “बेटी, मैं तुम्हारी पतीभक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। जाओ, मैं तुम्हारे पति को जीवनदान देता हूँ और उसका आयुष्य बढ़ाकर चार सौ वर्ष कर देता हूँ। प्रसन्नतापूर्वक अपने पति को लेकर जाओ।”
यह कहकर यमराज वहाँ से चले गए।
सावित्री वहाँ पहुँची जहाँ उसका पति मृत अवस्था में पड़ा था और उसने उसका सिर गोद में लिया। कुछ ही पलों में सत्यवान ने धीरे से आँखें खोली और उठ बैठा।
सत्यवान को जीवित देख सावित्री की आँखों में आँसू आ गए। सत्यवान ने अपने स्वप्न में देखी हुई सारी बातें सावित्री को बताईं। जवाब में सावित्री ने भी सारी सच्चाई अपने पति को कह सुनाई।
यमराज के वरदान के प्रभाव से सत्यवान के पिता को दृष्टि प्राप्त हुई, खोया हुआ राज्य वापस मिला, सावित्री की माँ को सौ पुत्र हुए और स्वयं सावित्री भी सौ बलवान पुत्रों की माता बनी। इस प्रकार चारों ओर आनंद ही आनंद फैल गया।
हे सावित्री माता! जैसे आपने सत्यवान को जीवनदान दिलाया, वैसे ही आपका व्रत करने और यह कथा सुनने वालों को भी उत्तम फल प्राप्त हो।




