ToranToran

सफला एकादशी

सफला एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि की पूजा नाम-मंत्रों के उच्चारण के साथ करनी चाहिए। इस दिन श्रीफल, सुपारी, बिजौरा, नींबू, अनार, सुंदर आंवला, लौंग, बोर और विशेष रूप से आम तथा धूप-दीप द्वारा भगवान का पूजन करें। इस एकादशी पर विशेष रूप से दीपदान का विधान है। रात्रि में वैष्णव जनों के साथ जागरण करना चाहिए। जो व्यक्ति रात्रि जागरण करता है, उसे वह फल प्राप्त होता है, जो हजारों वर्षों के तप से भी नहीं मिलता।

सफला एकादशी की पावन कथा

प्राचीन समय में चंपावती नामक नगरी थी, जो राजा महिष्मत की राजधानी थी। राजा के पाँच पुत्र थे, जिनमें से सबसे बड़ा पुत्र सदैव पापपूर्ण कर्मों में लिप्त रहता था। वह दुराचारी और दुष्ट स्वभाव का था। उसने अपने पिता की संपत्ति को पाप कर्मों में खर्च किया और सदैव ब्राह्मणों, वैष्णवों तथा भगवान की निंदा किया करता था।

राजा महिष्मत ने अपने पुत्र के इस व्यवहार को देखकर उसे लुम्भक नाम दिया और अपने अन्य पुत्रों के साथ मिलकर उसे राज्य से निकाल दिया। लुम्भक नगर छोड़कर जंगल चला गया, जहाँ वह चोरी करके नगर की संपत्ति को लूटता और जीविका चलाता।

एक रात वह चोरी के लिए नगर में आया और सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। लेकिन जब उसने खुद को राजा का पुत्र बताया, तो उसे छोड़ दिया गया। वह फिर जंगल लौट गया और मांस और फलों पर जीवन बिताने लगा। वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करता, जिसे वहाँ के लोग दिव्य मानते थे।

बहुत समय बीतने के बाद, किसी संचित पुण्य के प्रभाव से लुम्भक ने अनजाने में सफला एकादशी का व्रत कर लिया। यह मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी थी। व्रत के एक दिन पहले (दशमी को) उसने केवल फल खाए और वस्त्रहीन होने के कारण ठंड से रातभर काँपता रहा। उसे नींद नहीं आई और वह बेहोश हो गया। एकादशी के दिन भी वह बेहोश रहा। दोपहर बाद उसे होश आया, और कमज़ोरी व भूख से पीड़ित होकर वह फलों की खोज में जंगल गया।

संध्या के समय वह बहुत से फलों के साथ लौट आया और पीपल के वृक्ष के नीचे जाकर भगवान विष्णु को वे फल अर्पित किए। उसने प्रार्थना की —
“हे लक्ष्मीपति! कृपया इन फलों को स्वीकार करें और मुझ पर कृपा करें।”
उस रात भी वह सो न सका — इस तरह उसने अज्ञानवश व्रत का पालन कर लिया।

अचानक आकाशवाणी हुई —
“राजकुमार! सफला एकादशी के पुण्य से तुम्हें राज्य और संतान की प्राप्ति होगी।”
लुम्भक ने प्रसन्नतापूर्वक यह वरदान स्वीकार कर लिया।

इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया, और उसका मन भगवान विष्णु की भक्ति में लग गया। वह आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने राज्य को पुनः प्राप्त किया और 15 वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से उसे ‘मनोव्य’ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र के बड़ा होने पर लुम्भक ने राज्य त्याग दिया और उसे सौंपकर भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम चला गया, जहाँ कभी कोई दुःख नहीं होता।

हे राजन! जो भी व्यक्ति सफला एकादशी का पुण्य व्रत करता है, वह इस संसार में सुख भोगकर मृत्यु के पश्चात मोक्ष को प्राप्त करता है। धन्य हैं वे लोग जो इस एकादशी का व्रत करते हैं। उनका जन्म ही सफल हो जाता है। इस एकादशी का श्रवण, पाठ या पालन करने से राजसूय यज्ञ के बराबर फल मिलता है।