भविष्योत्तर पुराण में पापमोचनी एकादशी का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज स्वरूप की पूजा की जाती है। व्रतधारी दशमी तिथि को एक समय सात्विक भोजन करें और भगवान का ध्यान करें। एकादशी की सुबह स्नानादि के बाद व्रत का संकल्प लें। संकल्प लेने के बाद भगवान श्रीविष्णु की षोडशोपचार (१६ सामग्रियों) से पूजा करें।
पूजा के बाद भगवान के समक्ष बैठकर भागवत कथा का पाठ करें या किसी योग्य ब्राह्मण से करवाएं। परिवार सहित बैठकर कथा को श्रवण करें। रातभर जागरण करें, भजन-कीर्तन करें और उपवास में रहें।
द्वादशी (बाड़स) की सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करें, फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देकर विदा करें। उसके बाद स्वयं भोजन करें। इस प्रकार पापमोचनी एकादशी का व्रत करने से भगवान विष्णु अति प्रसन्न होते हैं और व्रती के सभी पापों का नाश हो जाता है।
पापमोचनी एकादशी व्रत कथा
बहुत समय पहले मांधाता नाम के एक पराक्रमी राजा थे। एक बार राजा मांधाता ने महर्षि लोहमश से पूछा – "हे मुनिवर! जो पाप मनुष्य जान-बूझकर या अनजाने में करता है, उनसे मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?"
महर्षि लोहमश बोले – "हे राजन! प्राचीन काल की बात है। चैत्यरथ नामक वन में, जो अप्सराओं से सेवित था और जहां गंधर्व कन्याएं अपने साथियों के साथ वाद्य यंत्र बजा कर विहार करती थीं, वहीं एक दिन मंजुघोषा नाम की अप्सरा तपस्वी मेघावी ऋषि को मोहित करने आई। ऋषि चैत्यरथ वन में ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। मंजुघोषा डर के कारण आश्रम से एक कोस दूर रुक गई और मधुर स्वर में वीणा बजा कर सुंदर गीत गाने लगी।
मेघावी ऋषि भ्रमण करते हुए वहां पहुंचे और सुंदर गीत सुनकर आकृष्ट हो गए। वह अप्सरा के पास गए, और वह उन्हें आलिंगन करने लगी। दोनों प्रेम में पड़ गए और समय का भान ही नहीं रहा। कई वर्ष बीत गए। समय आने पर अप्सरा स्वर्ग लौटने लगी और बोली, “मुनिवर, अब मुझे अपने लोक में लौटने की आज्ञा दें।”
ऋषि ने कहा – "जब तक सुबह की संध्या न हो जाए, तब तक रुको।"
अप्सरा बोली – "ऋषिवर! अब तक न जाने कितनी संध्याएं बीत चुकी हैं। कृपया ध्यान दें आपने कितना समय गंवाया है।"
राजा! जब ऋषि ने समय का ध्यान किया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि वे ५७ वर्ष अप्सरा के साथ बिता चुके हैं। अपनी तपस्या के नाश से वे अत्यंत क्रोधित हुए और अप्सरा को श्राप दिया – "पापिनी! तू पिशाचिनी बन जा।"
श्राप से विचलित होकर अप्सरा विनम्र होकर बोली –
“मुनिवर! कृपया मेरा उद्धार करें। कहते हैं सात वाक्य बोलने या सात कदम साथ चलने से मित्रता हो जाती है। मैं वर्षों से आपकी संगिनी हूं। कृपा करें।”
ऋषि बोले – "हे सुंदरी! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष में जो पवित्र एकादशी आती है, वह पापमोचनी एकादशी कहलाती है। यह सभी पापों का क्षय करने वाली है। इसका व्रत करने से तेरा पिशाचत्व समाप्त हो जाएगा।”
इतना कहकर मेघावी ऋषि अपने पिता च्यवन ऋषि के आश्रम गए। पिता ने उन्हें देखकर पूछा –
“पुत्र! यह तूने क्या किया? अपनी तपस्या का फल नष्ट कर दिया!”
मेघावी बोले – “पिताश्री! मैंने अप्सरा के साथ विहार करके महान पाप किया है। अब आप ही प्रायश्चित का उपाय बताएं।”
च्यवनजी बोले – “पुत्र! फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की जो पापमोचनी एकादशी होती है, उसका व्रत करने से तेरे पापों का नाश हो जाएगा।”
पिता के वचन को मानकर मेघावी ने व्रत किया और उनके पाप नष्ट हो गए। उसी प्रकार मंजुघोषा ने भी व्रत किया और वह पिशाच योनि से मुक्त होकर दिव्य स्वरूप वाली श्रेष्ठ अप्सरा बन गई और स्वर्ग लौट गई।
जो मनुष्य पापमोचनी एकादशी का व्रत करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस महात्म्य का पाठ करने और सुनने से अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है।
इसलिए हे राजन! पापमोचनी एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।




